।। अथ द्वितीयोऽध्यायः ।।

।। षट्पद ।।

मारुत-नन्दन तखन सूक्षम-तन, निशिमे धय कहूँ ।। 1 ।।

लङ्का कयल प्रवेश भ्रमित अतिगुप्ते भय कहूँ ।। 2 ।।

सीता तकयित ततय दशानन-मन्दिर गेला ।। 3 ।।

देखि विभव-विन्यास बहुत मन विस्मित भेला ।। 4 ।।

देखल लङ्का सकल थल, 
नहि प्रवेश बाँकी रहल ।। 5 ।।

देखलनि नहि सीता कतहु, 
स्मरण भेल लङ्किनि-कहल ।। 6 ।।

।। दोवय छन्द ।।

अरुण अशोक देवद्रुम-सोदर, 
तरु-तति आनत फलसौँ ।। 7 ।।

उत्तम मणि-सोपान दापिका, 
पूरित निर्म्मल जलसौँ ।। 8 ।।

कञ्चन महल कहल नहि जाइछ, 
चुम्बित जलधर-माला ।। 9 ।।

मणिस्तम्भ-शतसौं अतिशोभित, 
खग-मृग-परिवृत शाला ।। 10 ।।

।। चौपाइ ।।

विस्मित-मन सन मारुत-पूत । 
देखयित जाथि रघुत्तम-दूत ।। 11 ।।

कनक विहंगम जतय अनेक। 
वृक्ष शिंशपा देखल एक ।। 12 ।।

अति रमणीय निविड़ तरु-छाह । 
मारुत-नन्दन ततय गेलाह ।। 13 ।।

तेहि तरु ऊपर बैसला जखन । 
सीता काँ देखल से तखन ।। 14 ।।

भूतल देवि आबि की गेलि । 
राक्षस-पुरी विकल-मन भेलि ।। 15 ।।

वेणी एक मलिन अति चोर । 
दीना दुर्ब्बलि मृदुल शरीर ।। 16 ।।

लङ्का-विषय यहनि के आन । 
सीता थिकि निश्चय अनुमान ।। 17 ।।

राम राम मुख करथि उपचार । 
भूमि-लुठिथ मन दुःख अपार ।। 18 ।।

तहि तरु-मूल जानकी जानि । 
अपन भाग्य काँ उत्तम मानि ।। 19 ।।

अति कृतार्थ भेलहुँ देख आज । 
हम साधल रघुनायक-काज ।। 20 ।।

।। दोहा ।।

अन्तःपुर बाहरक शुनि, 
कल कल शब्द महान ।। 21 ।।

वृक्ष-खण्ड संलीन-तन, 
कर विचार हनुमान ।। 22 ।।

।। चौपाइ ।।

दशमुख वनिता-वृन्दक सङ्ग । 
आयल कज्जल-गिरि-वर रङ्ग ।। 23 ।।

किङ्किनि-नूपुर-शिञ्चित शुनि । 
दुष्ट निशाचर-आगम गूनि ।। 24 ।।

विश भुज लोचन दश गोट मुण्ड । 
सह सह सङ्ग राक्षसी झुण्ड ।। 25 ।।

अति विस्मित मन कह हनुमान । 
देखल शुनइत छलहूँ जे कान ।। 26 ।।

रहला द्रुब-दल दबकि नुकाय । 
अछि आगाँ कर्तव्य उपाय ।। 27 ।।

कर विचार रावण मन अपन । 
पुर्व्व रात्रि जे देखल सपन ।। 28 ।।

राम पठाओल वानर दूत । 
कामरूप बल बुद्धि बहुत ।। 29 ।।

टक टक ताकय तरु पर बैशि । 
बुझलक घाट बाट पुर पैशि ।। 30 ।।

कयल बहुत हम रामक दोष । 
एखनहु धरि हुनका नहि रोष ।। 31 ।।

कहिया मरण राम-कर हयत । 
माया-पाप-काय छुटि जयत ।। 32 ।।

एखनहु धरि नहि आबथि राम । 
कहिया होयत दिव्य संग्राम ।। 33 ।।

मनमे ज्ञान ऊपर अभिमान । 
चकमक भितर आगि समान ।। 34 ।।

वचन-बाण तेहन अनुसरब । 
सीता-मन अति कलुपति करब ।। 35 ।।

स्वप्न सत्य तौँ कपि देख लेत । 
रामचन्द्र काँ सभ कहि देत ।। 36 ।।

जौँ कपि होयता कहता जाय । 
लयोता सानुज राम बजाय ।। 37 ।।

ई मन गुनिकेँ सीता निकट । 
पहुँचल दशमुख दुर्म्म्द विकट ।। 38 ।।

सीता-दशा कहल नहि जाय । 
आत्ममध्य जनु रहलि समाय ।। 39 ।।

।। दोहा ।।

रावण सीता काँ कहल, 
सुमुखि सत्य वृतान्त ।। 40 ।।

राम न अयोता काज किछु, 
मनमे करू सिद्धान्त ।। 41 ।।

।। चौपाइ ।।

वैदेही परिहरु सन्ताप । 
उचित कयल नहि अहाँकाँ बाप ।। 42 ।।

रामक हाथ देल को जानि । 
कानन-वास अकारण हानि ।। 43 ।।

हेम-हरिण देखयति भेल लोभ । 
लङ्का देखि त्यागु मन क्षोभ ।। 44 ।।

शिव शिव आब कि रामक आश । 
लङ्का छोट हाथ उनचास ।। 45 ।।

जौँ नहि निर्गुण रहितथि राम । 
तौँ बसतथि नृप-दशरथ-धाम ।। 46 ।।

राम बसथि वनचर-गण संग । 
हमहूँ शुनल छल कथा-प्रसंग ।। 47 ।।

बहुत तकायोल लोक पठाय । 
नहि भेटला रहलाह नुकाय ।। 48 ।।

जौँ हुनका अहँ में किछु प्रीति । 
अबितथि लय जइतथि रण जीति ।। 49 ।।

पामर रामक त्यागु आश । 
विद्यमान लङ्केश्वर दास ।। 50 ।।

हरि आनल अहाँकाँ कत दूरि । 
एको बेरि की तकलनि घुरि ।। 51 ।।

बड़ कपटी छथि ज्ञान घमण्ड । 
दैवो देलथिन समुचित दण्ड ।। 52 ।।

सकल सुरासुर-नारि समाज । 
सभक स्वामिनी होयब आज ।। 53 ।।

सीता मन जनु करू किछु छोट । 
भाग्य अहाँक भेल बड़ गोट ।। 54 ।।

तृण-अन्तरित अधोमुखि रुष्ट । 
रवां-वचनक उत्तर पुष्ट ।। 55 ।।

जे शिर शिवकाँ अर्पण कयल । 
प्रबल पाप चरणो तत धयल ।। 56 ।।

धिक धिक रावण तोहर ज्ञान । 
काल-निकट अनहित हित मान ।। 57 ।।

जनिक त्रास बनि भिक्षुक रूप । 
हरि हरि हरि लयला की चूप ।। 58 ।।

कुक्कुर जनु मख-घृत लय जाय । 
मरबह खल पाछाँ पछताय ।। 59 ।।

मानुष मनाह श्रीरघुवीर । 
परिचय मन तन लगलय तीर ।। 60 ।।

अयोता सानुज प्रभु रघुनाथ । 
विचलत गर्व्व तोर दश-माथ ।। 61 ।।

बाणक तेज समुद्र सुखाय । 
सायक-सेतु उदधि बन्धबाय ।। 62 ।।

अयोता निश्चय होयत मारि । 
निश्चय तोहर रणमे हारि ।। 63 ।।

मरबह पुत्र-विकट-बल-सहित । 
आयल निकट तेहन दिन अहित ।। 64 ।।

।। दोहा ।।

सीता-वचन कठोर शुनि, 
रावण लय तरुआरि ।। 65 ।।

यहन कथा हमरा कहति, 
सद्यः हम देब मारि ।। 66 ।।

।। चौपाइ ।।

मन्दोदरी कहल शुनू नाथ । 
अबला बध की अपनैँ हाथ ।। 67 ।।

विदित वीर अपनैँ ई नारि । 
अपयश पाप देब जौँ मारि ।। 68 ।।

अबला ऊपर एतटा रोष । 
कड़रिक तरु पर शितुआ चोष ।। 69 ।।

कृपणा मलिना दुर्ब्ब्ल देह । 
हिनका जीबहु मे सन्देह ।। 70 ।।

अन्न पानि कयलनि अछि त्याग । 
नहि करती पर-जन अनुराग ।। 71 ।।

अहँकाँ कोन कमी प्राणेश । 
जीतल भुज-बल सकलो देश ।। 72 ।।

सुर गन्धर्व्व सकल जन नाग । 
कन्या लयलैँ मनता भाग ।। 73 ।।

कन्या-जन मद-घूर्णित-नयन । 
अपनहि सुखसौँ अउती शयन ।। 74 ।।

  ।। दोहा ।।

रावण राक्षसि सौँ कहल, 
उत्कट त्रास देखाय ।। 75 ।।

अनुकूला सीता करह, 
जे बल बुद्धि उपाय ।। 76 ।।

दुइ मासमे करति ई, 
जौं हमरा सौँ प्रेम ।। 77 ।।

सकल राज्य-रानी हयति, 
हिनका सभ सुख क्षेम ।। 78 ।।

बहुत बुझौलय नहि बुझथि, 
बीति जाय दुइ मास ।। 79 ।।

हम आज्ञा दय डेल अछि, 
हिनकर करब विनाश ।। 80 ।।

।। चौपाइ ।।
अन्तःपुर गेला दश-भाल । 
वनिता-परिवृत गर्व्व विशाल ।। 81 ।।

विकटादिक सीता तट जाय । 
भयभीता कर स्वाङ्ग बनाय ।। 82 ।।

व्यर्थ तोर तन यौवन आस । 
भेल न दशमुख सौँ सहवास ।। 83 ।।

केओ कह हिनक अङ्ग सभ काट । 
केओ कह जीह सँ शोणित चाट ।। 84 ।।

अपने हठ अपने सुख खाय । 
होयत की पाछाँ पछताय ।। 85 ।।

केओ तरुआरी तेज लय हाथ । 
काटि लिअ हम हिनकर माथ ।। 86 ।।

केओ दौड़य बड़ गोटमुह बाय । 
की विलम्ब हम जाइछि खाय ।। 87 ।।

त्रिजटा कहल करह अन्याय । 
सीता नहि जानह असहाय ।। 88 ।।

हिनकर निकट भ्रमहूँ जनु जाह । 
अपने अपने तन बरु खाह ।। 89 ।।

यहि खन हम देखल अछि सपन । 
होयत सत्य बुझल मन अपन ।। 90 ।।

 ।। रूपमाला ।।
चढ़ल ऐराबतक ऊपर, 
राम लक्ष्मण सङ्ग ।। 91 ।।

दग्ध लङ्कापुरी भय गेल, 
समर रावण भङ्ग ।। 92 ।।

राम-सेवा कर विभीषण राज्य लङ्का पाय ।। 93 ।।
जानकी ई राम अङ्क-स्थिता भेली जाय ।। 94 ।।

।। चौपाइ ।।
दशमुख नग्न सकल परिवार । 
तेल लगओलय भरल विकार ।। 95 ।।

गोबर डाबर मध्य नहाथि ।
 खर पर चढ़ल याम्य दिश जाथि ।। 96 ।।

रावण मरता सहित समाज । 
प्राप्त विभीषण काँ भेल राज ।। 97 ।।

  राम जानकी मिलि घर जायत । 
दुखमय लङ्का सत्वर हयत ।। 98 ।।

करत अनर्थ अखण्डित नोर । 
धन्य धन्य सीता हिय तोर ।। 99 ।।

करू करू धैरज कहब कि आन । 
मुठिएक धुरि न चानमलान ।। 100 ।।

।। गीत ।।
त्रिजटा कहल शुनू जानकी नवीन कथा ।। 101 ।।

वानर-विशेष वर वाटिका उजारलक ।। 102 ।।

रक्षक प्रबल रण-दक्ष लक्ष लक्ष खेत ।। 103 ।।

मुइल मूर्छित कतो रावण पुकारलक ।। 104 ।।

“चन्द्र” भन यहन न देखलशुनल छल ।। 105 ।।

अक्षयकुमार काँ पटकि झट मारलक ।। 106 ।।

कतहूँ न हारलक वीरता प्रचारलक ।। 107 ।।

रावण-पालित हाय लङ्कापुर जारलक ।। 108 ।।

।। सवैया छन्दः ।।

स्वप्न कथा राक्षसि-गण शुनिकेँ ।। 109 ।।

त्यागि उपद्रव गेलि डराय ।। 110 ।।

मद-मातलि छलि जागलि थाकलि ।। 111 ।।

निन्द-विवश भेलि जहँ तहँ जाय ! ।। 112 ।।

सीता तखन विकलि मन-भीता ।। 113 ।।

दुःख-मूर्छिता रहति-उपाय ।। 114 ।।

कनयित कलपि कहथि कि करू विधि ।। 115 ।।

प्रातहि राक्षसि जाइति खाय ।। 116 ।।

।। गीत काफी ।।

सपन हम देखल अचिन्तित राति ।। 117 ।।

विद्रुम-रक्त-वदन तेजोमय, 
अद्भुत वानर जाति ।। 118 ।।

प्रभु-प्रेषित पथोनिधि सन्तरि, 
लङ्का-परिचय पाबि ।। 119 ।।

हम विधिहता शुनल शुभ वार्ता, 
इष्ट अनिष्ट कि भावि ।। 120 ।।

जे दिन लङ्का प्रलय होइछ नहि, 
से दिन पापिक भाग ।। 121 ।।

इ अन्याय घोर लङ्कामे, 
पानिसौँ आगि न लाग ।। 122 ।।

सुरपति-सुतक परभाव-दायक, 
कोशल कौशल भूप ।। 123 ।।

से शर से कर से रघुवर वर, 
कत बैसल छथि चूप ।। 124 ।।

।। गीत ।।
से दिन कोना होयत मनोरथ पूर ।। 125 ।।

रघुनन्दन-बल प्रलय पवन सम, 
अधम निशाचर तूर ।। 126 ।।

देवर-तीर जेहन प्रलयानल, 
रावणगण वन झूर ।। 127 ।।

के हम थिकहुँ ककर हम कामिनि, 
परिचय पओता कूर ।। 128 ।।

सकल तमीचर तामस तम सम, 
श्रीरघुनन्दन सूर ।। 129 ।।

हमर यहन गति दैव देखै छथि, 
नहि उपाय किछु फूर ।। 130 ।।

तीरक तेज समुद्र सुखायत, 
जल थल उड़त धूर ।। 131 ।।

कोटि शनैश्चर सहित सङ्कटा, 
लङ्का  घर घर घूर ।। 132 ।।

।। गीत ।।

केहन विधि लिखल वपत्ति-तति भाल ।। 133 ।।

कुल पवित्र कुल-कामिनी हमरहि, 
कठिन विपत्ति जंजाल ।। 134 ।।

रघुनन्दन पति देवर लक्ष्मण, 
जनि डर काँपय काल ।। 135 ।।

चोर दशानन त्रास देखाबय, 
अनुचित कह वाचाल ।। 136 ।।

दनुज-बधू कह मारब काटब, 
चाटब शोणित लाल ।। 137 ।।

यहि अवसर जौँ ओ प्रभु आबथि, 
देखथि सबटा हाल ।। 138 ।।

काल-दूत जानि हेम-हरिण छल,  
छल न बुझल ततकाल ।। 139 ।।

कालहि सिंह-घरणि तट निर्भय, 
गरवित सरब श्रृगाल  ।। 140 ।।

।। गीत ।।

हमर विधि प्राण अपन भेल भार ।। 141 ।।

की सुख भुजि छथि ओ ई देहमे, 
कतहु कि नहि आधार ।। 142 ।।

जौँ आबथि रघुनन्दन सानुज, 
लीला सागर पार ।। 143 ।।

गृद्धझुण्ड दशमुण्ड-मुण्ड पर 
कर खर नखर प्रहार ।। 144 ।।

ककरा कहब केओ नहि मानुष, न
हि कारुणिक चिन्हार ।। 145 ।।

रक्षा करथि अरक्षित जनकाँ, 
केवल धर्म्म उदार ।। 146 ।।

कठिन विषय विष तिष नहि भेटय, 
खड़ग न लग तिष-धार ।। 147 ।।

शिव शिव जीव-घात वर मानल, 
धिक जीवन संसार ।। 148 ।।

रामचन्द्र-चन्द्रिका थिकहूँ हम, 
सपन न मन व्यभिचार ।। 149 ।।

विधि बुद्धि विरहिणि  व्याकुलि 
एकसरि चित चिन्ता विस्तार ।। 150 ।।

।। सवैया मुदिरा ।।

हा रघुनाथ अनाथ जकाँ, 
दशकण्ठ-पुरी  हम आइलि छी ।। 151 ।।

सिंहक त्रास महावनमे 
हरिणीक समान डराइलि छी ।। 152 ।।

चन्द्र-चकोरि अहैँक सदा, 
हम शोक-समुद्र समाइलि छी ।। 153 ।।

देवर-दोष कहू हम की, 
अपना अपराध सँ काइलि छी ।। 154 ।।

।। दोहा ।।

जनक जनक जननि अवनि, 
रघुनन्दन प्राणेश ।। 155 ।।

देवर लक्ष्मण हमर छथि, 
नैहर मिथिला देश ।। 156 ।।

।। इति श्री चन्द्रकवि-विरचित मिथिला-भाषा रामायणे
 सुन्दरकाण्डे द्वितीयोऽध्यायः ।।



मैथिली सुन्दर काण्ड वॉल्यूम 2