।। अथ चतुर्थोऽध्यायः ।।
बाँधल काँ पुरजन मिलि मार ।
कौतुक पहुँचल दशमुख-द्वार ।। 1 ।।
त्रास-हीन हर्षित हनुमान ।
केवल कौशलेश-पद ध्यान ।। 2 ।।
मारि गारि सबहिक सहि लेथि ।
पामर काँ नहि उत्तर देथि ।। 3 ।।
मेघनाद कहलनि शुनू तात ।
कयलक ई वानर उत्पात ।। 4 ।।
ब्रह्मास्त्रैँ हम जीतल जखन ।
वानर वशमे आयल तखन ।। 5 ।।
कहल जाय की समुचित मन्त्र ।
वानर काँ नहि करब स्वतन्त्र ।। 6 ।।
लौकिक वानर सन नहि कर्म्म ।
अपनहिँ जानब हिनकर मर्म्म ।। 7 ।।
ताकि प्रहस्त सचिव सौँ कहल ।
विषय विचार करक जे रहल ।। 8 ।।
पुछू वानर केँ मन्त्रि प्रहस्त ।
बौआयल कपि कालक ग्रस्त ।। 9 ।।
की आयल अछि की अछि काज ।
वानर सौँ बजइत हो लाज ।। 10 ।।
कथि लय कयलक उपवन नाश ।
राक्षस वध करइत नहि त्रास ।। 11 ।।
कहलनि मन्त्रि प्रहस्त प्रकाश ।
कपि मनमे नहि मानब त्रास ।। 12 ।।
प्रेषित ककर कहब से साँच ।
प्राण अहाँक अवश्ये बाँध ।। 13 ।।
कहलनि हरि बड़ गोट मोर भाग ।
दूरक ढोल सोहाओन लाग ।। 14 ।।
।। दोवय छन्दः।।
भूषल छलहुँ सङ्ग नहि खर्चा,
तोड़ि तोड़ि फल कयलहुँ ।। 15 ।।
रक्षक लण्ठ प्राण लेबा पर,
बहुत नेहोरा खयलहुँ ।। 16 ।।
कान कपार एक नहि बुझल,
पातैँ पात नुकयलहुँ ।। 17 ।।
अपन स्वरूप धयल हम सभकाँ,
कालक धाम पठयलहुँ ।। 18 ।।
पहिलय मारि बहुत हम सहलहुँ,
पाछाँ अनुचित कयलहुँ ।। 19 ।।
दश-मस्तक लङ्कापति राजा,
की अपने खिसिअयलहुँ ।। 20 ।।
एक गोट वानर पर एते,
सेना व्यर्थ पठयलहुँ ।। 21 ।।
धर्म्म-शास्त्र-वेत्ता अपनैँ सन,
न्याय करू अगुतयलहुँ ।। 22 ।।
।। रावणोक्ति।।
।। बसन्त-तिलका छन्दः।।
के तोँ थिकाँहि कत सौँ यत आबि गेलैँ ।। 23 ।।
की नाम तोहर निशाचर-भक्ष्य भेलैँ ।। 24 ।।
आज्ञा-विहीन फल तोड़ि बहुत खेलैँ ।। 25 ।।
तिर्हेतु रक्षक तहाँ किय मारि देलैँ ।। 26 ।।
।। हनुमानक उक्ति।।
रे दुष्ट लागल क्षुधा फल तोड़ि खेलौ ।। 27 ।।
कैलैँ उपद्रव ततै तरु तोड़ि देलौ ।। 28 ।।
हेतौ बहूत नहि सम्प्रति विघ्न भेलौ ।। 29 ।।
अस्त्र-प्रहार कयलैँ हम प्राण लेलौ ।। 30 ।।
।। मालिनी-छन्दः।।
राघुपतिक पठौलैँ लाँघि केँ सिन्धु एलौ ।। 31 ।।
तनिक कुशल-वार्त्ता जानकी कैँ शुनेलौ ।। 32 ।।
क्षुधित बहुत भेलैँ तैँ फलाहार कैलौ ।। 33 ।।
मरुत-सुत हनुमान्नाम की बाँधि लेलौ ।। 34 ।।
किछु दिन रहि लङ्का सिन्धु केँ फानि जैबे ।। 35 ।।
जनक-नृपति-पुत्री दुःख वार्त्ता शुनैबे ।। 36 ।।
प्रबल सकल सेना सङ्ग लै फेरि ऐबे ।। 37 ।।
तखन बुझब जे छी से आहाकाँ बुझैबै ।। 38 ।।
।। भुजङ्गप्रयात छन्दः।।
चिन्हारे अहाँ छी विरञ्चि-प्रपौत्रे ।। 39 ।।
कुकर्म्मी अहाँ छी करैछी कि श्रैत्रे ।। 40 ।।
गिरिशार्च्चना छोड़ि ई की करै छी ।। 41 ।।
परस्त्री अहाँ छद्म सौँ की हरैछी ।। 42 ।।
।। चौपाई।।
लङ्कापति हमछी निर्भित ।
फेरि गबैछी गओले गीत ।। 43।।
ब्रह्म विष्णु रामक अवतार ।
के गुण कहत हुनक विस्तार ।। 44 ।।
वेद न पाबथि कहयित पार ।
जनिकर सिरजल थिक संसार ।। 45 ।।
तनिकर माया सीता-रूप ।
हरि आनल वनसौँ चूप ।। 46 ।।
गञ्जन बन्धन कर्म्मक भोग ।
अयलहुँ नदिया-नाव-संयोग ।। 47 ।।
तनिकर दूत चोर हम धयल ।
करब उपाय एखन की कयल ।। 48 ।।
अनुभव बाली-बल विस्तार ।
तनिक राम कयलनि संहार ।। 49 ।।
दीनक झेर देखल दरबार ।
अयलहुँ दबि छपि सागर पार ।। 50 ।।
राम-सख्य सुग्रीवक सङ्ग ।
किछु दिन बितलय देखब रङ्ग ।। 51 ।।
कपिपति सचिव थिकहुँ हनुमान ।
अञ्जनि जननि जनक पवमान ।। 52 ।।
वानर चर फिरइछ सभ ठाम ।
हम लङ्का अयलहुँ शुनि नाम ।। 53 ।।
निति धर्म्म हम देल शुनाय ।
सत्य कहय से मारल जाय ।। 54 ।।
ह्रदय अहाँक अधिक अछि मैल ।
झिटुकी सौँ फुटि जाइछ घैल ।। 55 ।।
प्रभुक कुशल सीता सँ भाषि ।
लोभ भेल एक फल केँ चाषि ।। 56 ।।
लोभहिँ पतन कहय संसार ।
हमरा अपनहि पड़ल कपार ।। 57 ।।
बड़ गोट वंश ओ विस्तर राज ।
अपशक नहि किछु मनमे लाज ।। 58 ।।
करब न अहँसौँ किछु हम लाथ ।
अहँक नीक रघुनन्दन-हाथ ।। 59 ।।
पण्डित वेश कुपथ की धयल ।
हाथो सौँ हथि-बेसन कयल ।। 60 ।।
हमरा मारल बाँधल बेश ।
बुद्धि – वृद्धि हो लगलेँ ठेस ।। 61 ।।
हति बजला तखना दशकण्ठ ।
ई वानर अछि बड़का लण्ठ ।। 62 ।।
मृत्सम बाँधल मन अभिमान ।
हमरहु निकट छटै अछि ज्ञान ।। 63 ।।
मानुष राम गहन मे वास ।
हमरा तकर देखाबै त्रास ।। 64 ।।
तनिका मारब दनुज पठाय ।
वानर बिलटत रहति-सहाय ।। 65 ।।
सीता-कारण अछि उत्पात ।
करब तनिक हम प्राणक-घात ।। 66 ।।
सनकल अछि कपि बड़ वाचाल ।
हिनका माथ नचै अछि काल ।। 67 ।।
मारुत-नन्दन उत्तर कहल ।
रावण-कुवचन एक न सहल ।। 68 ।।
द्वितीय त्रिभंगी छन्द
दशमुख-वचन शुनल कपि कहलनि ।। 69।।
चुप रे अभिमानी, करतौ हानि, कटु बानी ।। 70 ।।
प्रभुकर-शरक निकर विषधर सन ।। 71 ।।
लागलैँ के बच प्रानी, शठ अज्ञानी, वक-ध्यानी ।। 72 ।। 𑒢
अपनहिँ मन नृप बनल सनल छह ।। 73 ।।
कहतौ के गुरु तोरा, शुनू स्त्री-चोर, कुल बोरा ।। 74 ।।
हित अनहित अनहित हित कयलह ।। 75 ।।
प्रभुक न कयल निहोरा, मति घोरा, शुभ थोरा ।। 76 ।।
घनाक्षरी
सत्य हनुमान तौँ प्रमाण ई वचन जान ।। 77 ।।
मर्क्कट विकट भालू-भट वश परबैँ ।। 78 ।।
प्रभु-दल प्रबल जखन उतरत इत ।। 79 ।।
दशमुख तखन उपाय कोन करबैँ ।। 80 ।।
मुष्टिका-अघात लात-लात -सन्निपात वश ।। 81 ।।
शोचवश रण मे त्राहि त्राहिकैँ कहरबैँ ।। 82 ।।
“चन्द्र” भन रामचन्द्र सर्व्वनाश-हाथ-तीर ।। 83 ।।
लगतहु जखन तखन मूढ़ मरबैँ ।। 84 ।।
चौपाई
मारुत-वचन शुनल लङ्केश ।
कोप-विवश जन देल निदेश ।। 85 ।।
हम कटु वचन शुनै छी कान ।
वानर बजइछ आनक आन ।। 86 ।।
हिनका मारय लय कय खण्ड ।
हिनकर सभ छूटय पाखण्ड ।। 87 ।।
कपिकाँ मारय दौड़ल जखन ।
अयला सभा विभीषण तखन ।। 88 ।।
कहलनि नितिशास्त्र – अनुसार ।
चारक वध नहि अछि व्यवहार ।। 89 ।।
दूत बेचारा मारल जयत ।
रामचन्द्र सौँ युद्ध न हयत ।। 90।।
अङ्कित हयता कहता जाय ।
राखक नहि थिक दूत बझाय ।। 91 ।।
निति विभीषण कहलहुँ नीक ।
मानल वचन सदर्थ अहीँक ।। 92 ।।
शण मन बहुत वस्त्र घृत तेल ।
ढेर भेल नृप आज्ञा देल ।। 93 ।।
कपि – वालधि मे सभ लपटाब।
कौतुक करइत नृपति हसाब ।। 94 ।।
किछु तहि ऊपर आगि लगाब।
के बुझ भावि काल स्वभाव ।। 95 ।।
मारथि गारि देथि कय बेरि।
योगी सौँ कयलनि धुरखेरि ।। 96 ।।
नाना तरहक बाजन बाज।
प्रबल चोर काँ पकड़ल आज ।। 97 ।।
पश्चिम द्वार पवन – सुत जाय।
बन्धन लेलनि सहज छाड़ाय ।। 98 ।।
सूक्ष्मरूप सौँ गेल बहराय।
सभ राक्षस-मन देल शुखाय ।। 99 ।।
सभ जन ह्रदय कदलि सन काँप ।
जनु कपि भेल चोटाओल साप ।। 100 ।।
कपिकाँ मन मे अछि बड़ रोष ।
करत उपद्रव पुन भरि पोष ।। 101 ।।
रावण-सभा उठल घमलौड़ि ।
ऐठन जरल न जरि गेल जौड़ि ।। 102 ।।
के थिक केहन न कयल विचार ।
मूर्खक लाठी माँझ कपार ।। 103 ।।
के कह कपि कपि – रूपी काल ।
नहि बुझ लङ्कापति दशभाल ।। 104 ।।
घनाक्षरी
अग्निमान त्रिकुट – अचल अनुमान भेल ।। 105 ।।
घूम – घार नभ घन प्रलय समान रे ।। 106 ।।
आगि आगि पानि भेल धह धह छानि भेल ।। 107 ।।
कपि-मन आनि भेल सङ्ग पवमान रे ।। 108 ।।
वानर न जानि भेल हसयित हानि भेल ।। 109 ।।
हास्य राजधानी भेल रावण मलान रे ।। 110 ।।
आनही सौँ आन भेल सर्व्व सावधान भेल ।। 111 ।।
रावण-प्रताप हर हरि हनुमान रे ।। 112 ।।
चौपाइ
बहल बहल तत प्रलय बिहाड़ि।
जनु पर्व्व्त काँ देत उखाड़ि ।। 113 ।।
कपिक पूछ में धधकल आगि।
विकल पड़ायल सभ घर त्यागि ।। 114 ।।
गोपुर ऊपर कपि चढ़ि फानि।
सभ मन छूटल मारिक बानि ।। 115 ।।
गरजि गरजि कपि ठोकल ताल।
राड़क असँघै जीवक जञ्जाल ।। 116 ।।
रूपक घनाक्षरी
गगन अनिल ओ अनल जल महि विश्व ।। 117 ।।
सिरिजल जनिक तनिक दूत जरबहु ।। 118 ।।
कोटि कोटि रावण ससमान गण लड़बह ।। 119 ।।
मृगगणा – मारक मृगेन्द्र जकाँ पड़बहुँ ।। 120 ।।
दखल प्रचण्ड रण हमर उदण्ड बल ।। 121 ।।
भेल आब कोप अभिमान लोप करबहु ।। 122 ।।
कालहुक काल विकराल सौँ नै भोति अछि ।। 123 ।।
तोहरा लोकनि बूतै हम कतै मरबहु ।। 124 ।।
चौपाई
जरय न कपि जारइत अछि गाम।
कह जन भेल विधाता वाम ।। 125 ।।
लोहस्तम्भ कपिक अछि हाथ।
जे लग भिड़थिन फोड़थिन माँथ ।। 126 ।।
सगर नगर अनल क सञ्चार ।
विना विभीषण घर ओ द्वार ।। 127 ।।
धर धर कहथि निकट नहि जाथि ।
हाथी कुक्कुर रीति डराथि ।। 128 ।।
पोटथि छाती वनिता कानि ।
कपि-उतपात भेल सभ हानि ।। 129 ।।
जरल कनक -मणिमय वर गेह ।
सम्पति रह की पाप-सिनेह ।। 130 ।।
दूत-पराक्रम कहल न जाय ।
भागवान काँ भूत कमाय ।। 131 ।।
कपि कह लङ्का करब विनाश ।
घैल काँच केँ मुगरक आश ।। 132 ।।
धिक रावण आनल न मलान ।
चोरक मुह जनु चमकय चान ।। 133 ।।
दशकन्धर की रहबह चैन ।
भल-घर-मध देलह अछि बैन ।। 134 ।।
हनुमान लग केओ न जाय।
मारिक डर सौँ भूत पड़ाय ।। 135 ।।
घनाक्षरी
अनुचित भेल न विचार दृढ कय लेल ।। 136 ।।
छोड़ि देल वानर विकट अधबध कै ।। 137 ।।
दिन भेल वक्र आब ककरो न शक अछि ।। 138 ।।
एक छानि आगि तौँ हजार घर धधकै ।। 139 ।।
प्रलय-कृशानु सन तखनुक भानु सन ।। 140 ।।
वीर हनुमान सनमुख जित-युधकै ।। 141 ।।
ताल घहराय के वारण करै जाय ।। 142 ।।
जत कयल अन्याय फल रावण अबुध कै ।। 143 ।।
शिखरिणी छन्दः
अरे बाबा दावानल-सदृश लङ्का जरइयै ।। 144 ।।
अधर्म्मी लङ्केशे तनिक सभ पापे करइयै ।। 145 ।।
पड़ा रे रे बाबु किछु न मन काबू परइयै ।। 146 ।।
विना पानि लङ्का-नृपति पट-रानी मरइयै ।। 147 ।।
नाराच
पड़ा पड़ा बड़ा बड़ा गृहाट्ट जारि देलकौ ।। 148 ।।
विदेह-कन्याका-विपत्ति जानि कानि लेलकौ ।। 149 ।।
बहुत छोट वानरे सभैक हाल कैलकौ ।। 150 ।।
प्रचण्ड दण्ड-देनिहार दूत चोर धैलकौ ।। 151।।
समानिका
मेघनाद की कहू, बुद्धि – होन छो अहूँ ।। 152 ।।
बाप पापकैल को, मृत्यु-मार्ग धैल को ।। 153 ।।
दोवय छन्दः
हरि-पद-विमुख कतहु सुख पाबथि, धिक थिक दशमुख – ज्ञाने ।। 154 ।।
दुर्गति कय कपि लङ्को जारय, धायलहिँ छथि अभिमाने ।। 155 ।।
एहि सौँ आब कि गञ्जन देखता, मरणाधिक अपमाने ।। 156 ।।
के कपि पकड़ लड़य के काल सौँ, नहि कपि-वीर समाने ।। 157 ।।
चौपाई
लङ्का-नगर सागर कपि डाह स्वामि-कार्य्य शूरित्व निर्वाह ।। 158 ।।
कुदि खसला सागर मे जाय पुच्छल बाँधल आगि मिझाय ।। 159 ।।
स्वस्थ -चित भेला हनुमान यहन पराक्रम कर के आन ।। 160 ।।
सीता-आशीष-बल नहि जरल लङ्कापति गर्व्व सभ हरल ।। 161 ।।
अग्नि वायु दुनु थिकथि इयार जरल न सखि – सम्बन्ध विचार ।। 162 ।।
जनिक नाम जपि छूट तिन ताप भवकृत – दोष – लेश नहि व्याप ।। 163 ।।
तनि रघुवरक दूतवर जानि प्राकृत आनल कयल नहि हानि ।। 164 ।।
हनुमानक डर केओ नहि बाज जनु कपि पायोल रामक राज ।। 165 ।।
जनकनन्दिनी छलि जहि ठाम घुरी पुन तनिकर कयल प्रणाम ।। 166 ।।
सानुज प्रभुवर अयाता तखन जननि ततय पहुँचब हम जखन ।। 167 ।।
तीनि प्रदक्षिण ई कहि देल आगाँ ठाढ़ जोड़ि कर भेल ।। 168 ।।
जे किछु बनल कयल हम काज दशकन्धर निर्ल्लज्ज कि वाज ।। 169 ।।
कहल जानकी शुनु कपि धीर सकल -नियन्ता श्री रघुवीर ।। 170 ।।
तनिकर इच्छा होयत जेहन कार्य्य – सिद्धि होयत शुभ तेहन ।। 171 ।।
पदाकुल दोहा
ओरे से दिन बीतल । नयनक नोर तोर वसन तितल ।। 172 ।।
आबि एकगोट कपि रावण जितल । करमक लिखल कतहु नहि चल ।। 173 ।।
करू करू जानकी जि ह्रदय शीतल । लङ्कापुर जरइछ प्रलय अनल ।। 174 ।।
सुखपाख सभ जन रावण हीतल । “चन्द्र” भन ठाढ़ जनु प्रतिमा लिखल ।। 175 ।।
षट्पद छन्द
हम किङ्कर हनुमान, देवि चिन्ता चित परिहरु ।। 176 ।।
हमरा काँधा चढ़लि, घोर सागर काँ सन्तरु ।। 177 ।।
त्क्षण मे श्रीरघुनाथ निकट कौशल पहुँचायब ।। 178 ।।
आज्ञा प्रभुसौँ पाबि, फरि लङ्का घुरि आयब ।। 179 ।।
प्रलय करब लङ्कापुरी, हमरा के रोकत सुभट ।। 180 ।।
जौँ ई रूचि हो स्वामिनी, देल जाय आज्ञा प्रगट ।। 181 ।।
शरसौँ शोषि समेद्र सेतुम शर – निकरक करता ।। 182 ।।
सानुज से प्रभु आबि, रावणक प्राणे हरता ।। 183 ।।
सुग्रीवक सभ सैन्य, आबि लङ्का कैँ लूटै ।। 184 ।।
सुयश लोक मे होयत, अचल लङ्कागढ़ टूटै ।। 185 ।।
हम मारुत-सुत प्राण काँ, कानहुँ यत्न राखब एतय ।। 186 ।।
कुशलत्क्षेम सौँ जाउ अहँ, श्रीरघुनन्दन छथि जतय ।। 187 ।।
दोबय
कयल प्रणाम अनेक वार कपिम पर्व्व्त पर चढ़ि गेला ।। 188 ।।
योजन तीश प्रमाण उच्च गिरि,
समभूमिक सम भेला ।। 189 ।।
पर्व्वत वायु वेग सौँ महितल,
दवि गेल तत्काले ।। 190 ।।
सागर तरथि घोर धुनि करइत,
धर्म्मक सोर पताले ।। 191 ।।
चौपाई
अङ्गदादि कयलनि अनुमान।
अबइत छथि हर्षित हनुमान ।। 192 ।।
शब्द एहेन करता के आन।
श्रवण-सुखद वर अमृत समान ।। 193 ।।
एतहु सकल कपि बालि-किशोर ।
हर्षक शब्द कयल नहि थोर ।। 194 ।।
गिरि पर पहुँचि गेला हनुमान ।
मृतक देह जनु पलटल प्राण ।। 195 ।।
कार्य्यसिद्धि होइछ अनुमान ।
हर्षक सुख मुख-शोभा आन ।। 196 ।।
शस्त्रक क्षत कत देखिय अङ्ग ।
भेल समर जनि लगइछ रङ्ग ।। 197 ।।
महावीर कह शुनू प्रिय सर्व्व ।
प्रभु-प्रताप किछु हमर न गर्व्व ।। 198 ।।
देखि जनकजा विपिन उजारि ।
रक्षक जन केँ रण मे मारि ।। 199 ।।
कि करब ततय पड़ल बड़ मारि ।
राम-प्रताप कतहु नहि हारि ।। 200 ।।
दशकन्धर सौँ वाद विवाद ।
बचलहुँ श्री रघुनाथ-प्रासाद ।। 201 ।।
अयलहुँ बहुत सुभट केँ मारि ।
रावण-पालित लङ्का जारि ।। 202 ।।
राम-कपिशक तट हम जयब ।
एखनहि ततहि स्वस्थ हम हयब ।। 203 ।।
वानर -वृन्द मिलल भरि अङ्क ।
जेहन परशमणि पाबथि रङ्क ।। 204 ।।
पूछ चूमि गुणगण सभ बाँच ।
हरषि हरषि हरिगणा भल नाँच ।। 205 ।।
सारवती छन्दः
राम कहू पुन राम कहू, मारुत-नन्दन धन्य अहूँ ।। 206 ।।
आब चलू छथि नाथ जहाँ, की सुखलाभ अनन्त तहाँ ।। 207 ।।
सोरठा
चलल वीर-समुदाय, महावीर अज्ञआय चल ।। 208 ।।
प्रस्त्रवणाचल जाय कपिपति -मधुवन प्राप्त सभ ।। 209 ।।
दोवय छन्दः
वानर सकल कहल अङ्गद काँ, अहँ छो भूपक बालक ।। 210 ।।
आज्ञा देल जाय मधुवन -फल खायब अपनैँ पालक ।। 211 ।।
जनितहि छो सभ जन छो भुखले, फलमधु यहन न पायब पालक ।। 212 ।।
खाय पोबि सन्तुष्ट चित्तसौँ, प्रभुक निकट मे जायब पालक ।। 213 ।।
चौपाई
अङ्गद कहल सुखित फल खाउ ।
किछ नहि ककरो डरैँ डराउ ।। 214 ।।
कपि फल खाथि करथि मधुपान ।
रक्षक हटल पटल नहि मान ।। 215 ।।
दधिमुख – अनुशासन काँ पाय ।
देल रक्षक सभकैँ लठिआय ।। 216 ।।
अतिबल वानर भूखल घूरि ।
सभ रक्षक काँ देलनि चूरि ।। 217 ।।
दधिमुख-मुख भय गेल मलान ।
कुपित न बजला से मतिमान ।। 218 ।।
सभ रक्षक कैँ संग लागय ।
कपिपति काँ कहि देल देखाय ।। 219 ।।
तारा तनय हठी हनुमान ।
जेहन आगि केँ पवन दीवान ।। 220 ।।
मधुवन फल भल खयलय जाथि ।
किछु नहि अपनैक त्रास डराथि ।। 221 ।।
हम नहि करब विपिन रखबारि ।
किछु बजितौँ तौँ खइतहुँ मारि ।। 222 ।।
मधुवन फल राखल छल ढेर ।
लुटि भेल काकरहु नहि टेर ।। 223 ।।
युवराजक हनुमान प्रधान ।
विपिन विनाशक कि कहब ज्ञान ।। 224 ।।
हम छी कपि – भूपालक माम ।
नहि घुरि जायब गञ्जन ठाम ।। 225 ।।
सत्य कहै छी शुनू कपिनाथ ।
मर्य्यादा रह अपनहिँ हाथ ।। 226 ।।
मधुवन फल मधु कयलक नाश ।
भूतक घर सन्ततिक निवास ।। 227 ।।
शुनल वचन कहलनि जे माम ।
कपिपति-मन नहि कोपक ठाम ।। 228 ।।
हर्षक नोर भरल दुहु आँखि ।
अयला अयला उठला भाखि ।। 229 ।।
सीता देखि आयल हनुमान ।
हमरा मन से निश्चय ज्ञान ।। 230 ।।
से शुनि पुछलनि अपनहि राम ।
मारि भेल अछि की कोन ठाम ।। 231 ।।
की कहयित छथि कपिपति माम ।
लेल कि जनकनन्दिनी नाम ।। 232 ।।
कहलनि गेल जे दक्षिण देश ।
आयल सभ जन रहित कलेश ।। 233 ।।
कार्य्यसिद्धि कयलनि हनुमान ।
मधुवन फल के चाखत आन ।। 234 ।।
दधिमुखकाँ कहलनि अहँ जाउ ।
सभ जनकाँ सत्वर लय आउ ।। 235 ।।
बहुत शीघ्र से बन मे जाय ।
अङ्गदादि काँ कहल बुझाय ।। 236 ।।
रामचन्द्र लक्ष्मण कपिराज ।
बड़ सन्तुष्ट भेल छथि आज ।। 237 ।।
शीघ्र बजौलनि करू प्रयाण ।
भाग्य ककर तुल अहँक समान ।। 238 ।।
शुनतहिँ सकल जन तुष्ट ।
प्रभुक समक्ष मुदित-मन पुष्ट ।। 239 ।।
अङ्गद आदि सहित हनुमान ।
प्रणत कहल हरिभक्त – प्रधान ।। 240 ।।
मारुत-नन्दन जोड़ल हाथ ।
कृपा – जलधि जय जय रघुनाथ ।। 241 ।।
वैदेही हम देखल आँखि ।
कुशल प्रभुक विधिवत सम भाखि ।। 242 ।।
दोबय छन्दः
मलिनवसन एक-वेणी अतिदुख,
निराहार दुबराइल ।। 243 ।।
राम राम रट सकरुण धुनि कय,
शुद्ध समाधि समाइलि ।। 244 ।।
अहह अशोकवाटिकाभ्यन्तर,
वृक्ष-शिंशुपा छाया ।। 245 ।।
लङ्कापुरी राक्षसी-घेड़लि,
छथि प्रभु अपनैँक माया ।। 246 ।।
कि करब यत्न फुरल नहि आन कयल
तखन रघुपति-गुण-गान ।। 247 ।।
जैँ विधि प्रभु लेलनि अवतार हरण
हेतु पृथिविक खल-भार ।। 248 ।।
धनुषभङ्ग परिणय जे रीति सकल
शुनाओल मङ्गल गीति ।। 249 ।।
अयला प्रभु जे विधि वनवास
सकल कथा से कयल प्रकाश ।। 250 ।।
आश्रमशून्य जानि लङ्केश देवी
हरि अनलक एहि देश ।। 251 ।।
कथा शुनथि वैदेही कान
मन-मन करथि अनुमान ।। 252 ।।
मैत्री जैँ विधि कयल कपीश
अपनाओल प्रभु अपना दीश ।। 253 ।।
अनुज-नारि-रत बालि विचार तानकाँ रघुपति सत्वर मारि ।। 254 ।।
से सुग्रीव विदित कपिराज सम्प्रति प्रभु छथि तनिक समाज ।। 255 ।।
तनिक सचिव हम श्रीपति-दास सीता देखक बहुत प्रयास ।। 256 ।।
से कोन देश कोन से ठाम दूत पठाओल जतय न राम ।। 257 ।।
आज फलित भेल हमर प्रयास मानस-दुःख-राशि भेल नाश ।। 258 ।।
तकलनि कहलनि अमृत-समान वचन शुनाओल के ई कान ।। 259 ।।
लोचन-गोचर से भय जाथु कहथु कथा नहि एखन नुकाथु ।। 260 ।।
दूरहि सौँ हम कयल प्रणाम अञ्जलि-बद्ध-ठाढ़ तहिठाम ।। 261 ।।
सूक्ष्म-रूप वानर आकार हम प्रभु-चरित कहल विस्तार ।। 262 ।।
परिचय पूछलनि पूछलनि नाम नर-वानर-सङ्गति कोन ठाम ।। 263 ।।
स्वामिनी कथा पूछल जय बेरि हमहुँ शुनाओल से सभ फेरि ।। 264 ।।
प्रत्ययमूल मुद्रिका देल तखन प्रतीति तनिक मन भेल ।। 265 ।।
घनाक्षरी छन्द
गञ्जन ताड़न राक्षसीक सहै पड़इछ,
एहेन विपति पड़उन जनु अनका ।। 266 ।।
हमर विपत्ति देखतहिँ छीय अपनहुँ,
सपनहुँ चैन नहि दिन राति मनकाँ ।। 267 ।।
जनु मन राखथु हमर अपराध किछु,
निवेदन कय देब धरणी-धरण काँ ।। 268 ।।
सकरुणा सजल-नयन देवी कहलनि,
कहबनि अहाँ कपि विपति-हरण काँ ।। 269 ।।
चौपाई
सीता वचन करूण-परिपूर ।
शुनि शुनि कि करब से नहि फूर ।। 270 ।।
हे प्रभु कहलहुँ बहुत बुझाय ।
तनि घन-नयन न नोर सुखाय ।। 271 ।।
कर औँठी कङ्कण प्रभु-हाथ ।
तूअ वियोग भृश कृश रघुनाथ ।। 272 ।।
जायब अभिज्ञान काँ पाय ।
देल जाय श्रीजानकि माय ।। 273 ।।
चूड़ामणि देलनि कहि कानि ।
कत हम कयल विरञ्चिक हानि ।। 274 ।।
वासवसुत वायस वनवास ।
खल छल पहँचल मन निस्त्रास ।। 275 ।।
फल भाल पौलनि स्वामि-समीप ।
भय भ्रमि अयला सातो दीप ।। 276 ।।
अति सामर्थ्य प्रभुक सभ काल ।
के थिक दुर्न्नन्य खल दशभाल ।। 277 ।।
प्रभु-पत्नी पाबिय दुख घोर ।
जलधर जितल अखण्डित नोर ।। 278 ।।
देवर काँ हम वचन कठोर ।
कहल तकर फल भेल न थोर ।। 279 ।।
अनुचित क्षमा करत के आन ।
कहब दयामय देवर-कान ।। 280 ।।
संकट सौँ लय जाथि छोड़ाय ।
प्रभुक अनुज से करथु उपाय ।। 281 ।।
चलि नहि रहि नहि हाँ तहिठाम ।
आज्ञा विनु कत करू सङ्गम ।। 282 ।।
विकल स्वामिनी-दशा निहारि ।
चलयित कयलहुँ विपिन उजारि ।। 283 ।।
भेल लड़ाइ तहाँ घमासान ।
बहुत वीर समरहिँ निःप्राण ।। 284 ।।
दशवदनक सुत अक्षय कुमार ।
हमरहि सौँ तनिकर संहार ।। 285 ।।
मेघनाद आयल खिसिआय ।
रण निर्ज्जित कयलक अन्याय ।। 286 ।।
ब्रह्मास्त्र से कयल प्रयोग ।
बाँधल गेलहुँ कयल दुख-भोग ।। 287 ।।
लङ्का मे सञ्चित घृत तेल ।
हमरा बालधि अर्प्पित भेल ।। 288 ।।
सा ओ वसन लपेटल पूछ ।
मन जरि जायत वानर तूछ ।। 289 ।।
प्रभु-प्रताप नहि मानल हारि ।
सगर नगर घर हम देल जारि ।। 290 ।।
सोरठा
कर्म्म करत के आन, सुरदुर्ल्लभ हनुमान सन ।। 291 ।।
हित के अहँक समान, सजल-नयन रघुनाथ कह ।। 292 ।।
अतिसाहसधर वीर, अविरल भक्तिक भवन अहँ ।। 293 ।।
पिता अहाँक समीर, जगत्प्राण-सुत उचित थिक ।। 294 ।।
धनाक्षरी
नाव अरि लाब नहि उतरक दाब नहि, ।। 295 ।।
एक बुद्धि आब नहि सागर अपार में ।। 296 ।।
वीर अरि छोट नहि सङ्ग एक गोट नहि, ।। 297 ।।
लङ्का लघु कोट नहि विदित संसार में ।। 298 ।।
दनुज अबल नहि, पुरी गम्य थल नहि, ।। 299 ।।
प्रदेश अम्मल नहि युद्धक विचार मे ।। 300 ।।
अहाँक समान महि वीर हनुमान नहि, ।। 301।।
सर्व्वस्वक दान नहि तूल उपाकर मे ।। 302 ।।
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