।। चौपाइ ।।
वैदेही परिहरु सन्ताप । उचित कयल नहि अहाँकाँ बाप ।। 42 ।।
रामक हाथ देल को जानि । कानन-वास अकारण हानि ।। 43 ।।
हेम-हरिण देखयति भेल लोभ । लङ्का देखि त्यागु मन क्षोभ ।। 44 ।।
शिव शिव आब कि रामक आश । लङ्का छोट हाथ उनचास ।। 45 ।।
जौँ नहि निर्गुण रहितथि राम । तौँ बसतथि नृप-दशरथ-धाम ।। 46 ।।
राम बसथि वनचर-गण संग । हमहूँ शुनल छल कथा-प्रसंग ।। 47 ।।
बहुत तकायोल लोक पठाय । नहि भेटला रहलाह नुकाय ।। 48 ।।
जौँ हुनका अहँ में किछु प्रीति । अबितथि लय जइतथि रण जीति ।। 49 ।।
पामर रामक त्यागु आश । विद्यमान लङ्केश्वर दास ।। 50 ।।
हरि आनल अहाँकाँ कत दूरि । एको बेरि की तकलनि घुरि ।। 51 ।।
बड़ कपटी छथि ज्ञान घमण्ड । दैवो देलथिन समुचित दण्ड ।। 52 ।।
सकल सुरासुर-नारि समाज । सभक स्वामिनी होयब आज ।। 53 ।।
सीता मन जनु करू किछु छोट । भाग्य अहाँक भेल बड़ गोट ।। 54 ।।
तृण-अन्तरित अधोमुखि रुष्ट । रवां-वचनक उत्तर पुष्ट ।। 55 ।।
जे शिर शिवकाँ अर्पण कयल । प्रबल पाप चरणो तत धयल ।। 56 ।।
धिक धिक रावण तोहर ज्ञान । काल-निकट अनहित हित मान ।। 57 ।।
जनिक त्रास बनि भिक्षुक रूप । हरि हरि हरि लयला की चूप ।। 58 ।।
कुक्कुर जनु मख-घृत लय जाय । मरबह खल पाछाँ पछताय ।। 59 ।।
मानुष मनाह श्रीरघुवीर । परिचय मन तन लगलय तीर ।। 60 ।।
अयोता सानुज प्रभु रघुनाथ । विचलत गर्व्व तोर दश-माथ ।। 61 ।।
बाणक तेज समुद्र सुखाय । सायक-सेतु उदधि बन्धबाय ।। 62 ।।
अयोता निश्चय होयत मारि । निश्चय तोहर रणमे हारि ।। 63 ।।
मरबह पुत्र-विकट-बल-सहित । आयल निकट तेहन दिन अहित ।। 64 ।।
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