।। दोहा।।
कहल जानकी अहिँक सन, कपिदल सूक्ष्म-शरीर ।। 105 ।।
युद्ध असम्भव असुर सौँ, नहि होइछ मन थीर ।। 106 ।।
।। कुण्डलिया।।
शुनइत सीता-वचन कपि, पुर्व्व-रूप बनि गेल ।। 107 ।।
कनक शैल-शंकाश तन, मन अति हर्षित भेल ।। 108 ।।
मन अति हर्षित भेल, कहल सभ गुण अहँ आगर ।। 109 ।।
मेरु सदृश अहँ मथित, करब रावण-बल-सागर ।। 110 ।।
देखति राक्षसि लोक, एखन धरि नहि अछि जनइत ।। 111 ।।
कुशल प्रभुक तट जाउ, कहब जे छल छी शुनइत ।। 112 ।।
।। कवित्त रूपक घनाक्षरी।।
बड़ हम भूषल चलल नहि जाइ अछि ।। 113 ।।
आज्ञा देल जाय जाय हम फल किछु खाय लेब ।। 114 ।।
‘चन्द्र’ भन रामचन्द्र-चरण-भरोस मन ।। 115।।
अपनैँक पदधूरि माथ मे लगाय लेब ।। 116 ।।
चलल प्रबल पवमान हनुमान वीर ।। 117 ।।
मनमे कहल फल खाय केँ अघाय लेब ।। 118 ।।
प्रभुक विमुख दश-मुखक सन्मुख जाय ।। 119 ।।
शूरता देखाय नाम अपन बजाय लेब ।। 120 ।।
तड़पि तड़पि तत तरु तड़ तड़ तोड़ि ।। 121 ।।
रोक के अशोक-वर-वाटिका उजाड़ि देल ।। 122 ।।
रहल न चैत्य तरु महल ढहल कत ।। 123 ।।
सीताक निवास शिंशपाक तरु छाड़ि देल ।। 124 ।।
पकड़ पकड़ कपि जाय न पड़ाय कहुँ ।। 125 ।।
कहल तानिकाँ मारि पृथ्वी मे पाड़ि देल ।। 126 ।।
लङ्कापुर जाय जहाँ सङ्गी न सहाय ।। 127 ।।
तहाँ मारुत-नन्दन रौद्र वीरता उघाड़ि देल ।। 128 ।।
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